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आज का लेख ‘महिला खेतिहर की भी सुध लीजिए’, जब मैंने पढ़ा तो मेरे दिमाग में पिछले साल का एक लाइव वाद-विवाद कार्यक्रम याद आ गया। इसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले ‘बिन ब्याही महिला अपने बच्चे की सोल पेरेंट्स मान्य होगी’ पर चर्चा थी। चर्चा के दौरान उपस्थित कुछ प्रतिष्ठित महिलाएं इस फैसले को ऐतिहासिक बताकर महिला सशक्तिकरण का अलाप करते हुए पुरुष मानसिकता तथा पितृ सत्तात्मक परिवार आदि पर आपनी दबी हुए उत्कंठा को व्यक्त करने लगीं। ऐसा लग रहा था जैसे इन्हें पुरुषों के प्रति आपनी भड़ास निकालने का मौका मिल गया हो।
इस सन्दर्भ की चर्चा मैंने इसलिए प्रस्तुत की, क्योंकि आज महिला आन्दोलन जिस प्रताड़ित महिला का नेतृत्व कर रहा है, दरअसल वो उसका अधूरा हिस्सा ही है। आज महिला आन्दोलन की पहुंच सिर्फ शहरी महिला, पढ़ी-लिखी महिला तथा उच्च वर्गों में कामकाजी महिला तक है। न केवल महिला आन्दोलन, बल्कि अन्य सक्रिय आन्दोलन भी सिर्फ उसी महिला के आधिकारों तथा स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो महिला शहरों में है, लग्जरी गाड़ी से चलती है, रेस्तरां में खाना खाती है आदि।
वर्तमान स्थिति में देखा जाय तो महिलाओं की आधी से अधिक आबादी गांवों में, कस्बों में तथा बस्तियों रहती है और वही सबसे अधिक शोषण व आत्याचार का दंश झेल रही है। आज यह स्थिति किसी भी पढ़े-लिखे या अनपढ़ से छिपी नहीं है कि सबसे अधिक अत्याचार ग्रामीण महिलाओं, गरीब, झुग्गी–झोपडि़यों में रहने वाली महिलाओं तथा तंगहाली में जीवन व्यतीत करने वाली महिलाओं के साथ हो रहे हैं। ग्रामीण व गरीब महिलाओं के लिए स्वतंत्रता के तथा अधिकारों के अर्थ ही अलग हैं। यहां महिलाओं से संबंधित हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों तक न पुलिस की पहुंच है न मीडिया की।
स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव तथा गंभीर बीमारियों के चलते ये महिलाएं उम्र के आधे पड़ाव में ही दुनिया को अलविदा कह देती हैं। बलात्कार, छेड़छाड़ जैसे गंभीर अपराध ग्रामीण परिधियों में आम घटनाएं होती हैं। तमाम अध्ययन व रिपोर्ट इस संबंध में प्रकाशित होती रहती हैं, लेकिन इनकी भी पहुंच सीमित है। कुछ मामलों में ही ऐसा होता है कि किसान मजदूर महिला के अधिकारों और उसके स्वतंत्रता की बात की जाए, यदि ऐसा होता भी है तो उनका भी दायरा स्वार्थ से भरा होता है।
अजीब नहीं लगता, इन पढ़े-लिखे लोगों को यह कहते हुए कि हम महिला पुरोधा हैं। महिलाओं के हक की लडाई लड़ते हैं। सच्चाई तो यह है कि इस तरह के कुछ मुद्दे, कुछ बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराते हैं, जिनको प्रताड़ित महिला के मायने ही नहीं पता, महिला आन्दोलन का दायरा ही नहीं पता।
किसी भी राजनीतिक पार्टी की नजरों में केवल पुरुष किसान व पुरुष मजदूर ही हो सकते हैं। उन्हीं के अधिकार छीने जाते हैं, उन्हीं का शोषण होता है। महिला किसान-महिला मजदूर तो होती ही नहीं। वे तो बस महिला हैं। कोई आन्दोलन महिला किसान-महिला मजदूर के लिए सक्रिय रूप से नहीं चलता। यदि ऐसे एकाध संगठन हैं भी, तो वे भी स्वार्थ से परे नहीं हैं।
भारत आज विकासशील देशों की सूची में ऊपर है तथा सबसे तेज विकास करने वाला देश बना हुआ है। भारत सरकार अपनी प्रत्येक योजना का लक्ष्य समावेशी विकास रखती है। इसके लिये जरूरी है कि न केवल शहरी महिलाओं के प्रति, बल्कि ग्रामीण, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली, गृहिणी तथा कामकाजी महिलाओं के अधिकारों को समाज, राजनीति व आर्थिक जगत के प्रत्येक स्तर पर संरक्षित करना होगा। साथ ही साथ समाज में सक्रिय संबंधित संगठनों को उनका दायरा भी बढ़ाना होगा, तभी सही अर्थों में समानता जैसे लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना होगी और सामवेशी विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा।
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